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उत्तराखंड के पहाड़ों में मशरूम बना आजीविका की नई उम्मीद

By नरेन्द्र सिंह बिष्ट | 14,March,2024 (Updated: 14,March,2024)
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उत्तराखंड के पहाड़ों में मशरूम बना आजीविका की नई उम्मीद

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच उत्तराखंड के मनोज बिष्ट ने मशरूम की खेती को आजीविका का साधन बनाकर कई ज़िंदगियाँ बदली हैं। यह कहानी केवल मशरूम की खेती की नहीं, बल्कि एक बदलाव की बयार की है।

उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ी इलाकों में जहां कभी हरियाली और खुशहाली की छवि थी, अब जलवायु परिवर्तन की मार से कई गांव उजाड़ हो गए हैं। बर्फबारी घट गई है, झरने सूख रहे हैं और खेती की उपज अब पहले जैसी नहीं रही। ऐसे में किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है – आजीविका का संकट। लेकिन कुछ युवाओं ने हार नहीं मानी, और इस संकट को अवसर में बदलने का बीड़ा उठाया।

ऐसे ही एक प्रेरणादायक उदाहरण हैं मनोज बिष्ट, जिन्होंने कठिनाइयों से लड़ते हुए एक नई राह खोजी – मशरूम की खेती। मशरूम, जिसे पहले लोग जंगल से बटोरते थे, आज गांवों में ही उगाई जा रही है और परिवारों के जीवन की दिशा बदल रही है। यह कहानी केवल आर्थिक मजबूती की नहीं, बल्कि उम्मीद, नवाचार और आत्मनिर्भरता की भी है।

मनोज बिष्ट: पहाड़ की नई सोच

अल्मोड़ा जिले के एक सुदूर गांव 'तोली' के निवासी मनोज बिष्ट की यात्रा असाधारण है। एक समय बेरोज़गारी से जूझ रहे मनोज ने मशरूम की खेती को गंभीरता से लेना शुरू किया, जब उन्होंने देखा कि उनके गांव से हर साल कई युवा रोजगार की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं। मनोज के पास सीमित संसाधन थे – ना जमीन ज्यादा, ना पूंजी – लेकिन उनके पास था एक बड़ा सपना।

उन्होंने इंटरनेट और कृषि विज्ञान केंद्रों से जानकारी जुटाई और मशरूम की एक छोटी यूनिट अपने घर में ही शुरू की। शुरुआत में परिवार और गांव वालों ने इस विचार को हल्के में लिया, लेकिन मनोज ने हार नहीं मानी। आज उनके पास एक व्यवस्थित यूनिट है, जहां हर साल 2500 किलो से अधिक मशरूम का उत्पादन होता है। उन्होंने 15 युवाओं को अपने साथ जोड़ा है और पास के गांवों में भी कई लोगों को प्रशिक्षण दिया है।

मशरूम की खेती: स्वास्थ्य और समृद्धि का स्रोत

मशरूम को सुपरफूड माना जाता है, क्योंकि इसमें प्रोटीन, फाइबर, विटामिन B और C, पोटैशियम और आयरन जैसे पोषक तत्व भरपूर होते हैं। यह इम्युनिटी को बढ़ाता है, ब्लड प्रेशर नियंत्रित करता है और कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में भी मदद करता है। इसके अलावा, यह शाकाहारियों के लिए एक शानदार प्रोटीन स्रोत है।

  • कम लागत में अधिक लाभदायक उत्पादन

  • महिलाओं और युवाओं के लिए स्वरोजगार का अवसर

  • स्वस्थ्य जीवनशैली के लिए उपयुक्त सुपरफूड

  • जलवायु परिवर्तन में सहायक कृषि विकल्प

  • स्थानीय और राष्ट्रीय बाजारों में भारी मांग

उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां परंपरागत खेती अब मुश्किल होती जा रही है, मशरूम की खेती एक व्यावहारिक और स्थायी विकल्प बन रही है। न केवल यह मिट्टी की गुणवत्ता को बनाए रखती है, बल्कि पानी की भी कम आवश्यकता होती है। सबसे बड़ी बात यह कि इसमें कम समय में उत्पादन होता है – सिर्फ 20 से 25 दिन में मशरूम तैयार हो जाता है।

सरकारी योजनाओं और सहयोग का लाभ

राज्य सरकार ने मशरूम उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चलाई हैं। कृषि विभाग द्वारा प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं, उपकरण दिए जाते हैं और बायोलॉजिकल स्पॉन (बीज) भी उपलब्ध कराए जाते हैं। हाल ही में नैनीताल जिले को मशरूम हब घोषित किया गया है। इसमें भीमताल, भवाली और गरमपानी जैसे क्षेत्रों में यूनिट्स स्थापित की गई हैं।

‘मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना’ और ‘राष्ट्रीय कृषि विकास योजना’ के अंतर्गत किसानों को अनुदान, मशीनरी और तकनीकी मार्गदर्शन मिल रहा है। सरकार का उद्देश्य है कि पहाड़ के युवाओं को गांव में ही स्वरोजगार मिले ताकि पलायन रोका जा सके। मनोज जैसे लोगों को भी इन योजनाओं से सीधा लाभ मिला है – उन्हें न केवल ट्रेनिंग मिली, बल्कि उपकरणों की खरीद में भी सहायता मिली।

भविष्य की संभावनाएं और नई पीढ़ी की भागीदारी

देश और दुनिया में ऑर्गेनिक उत्पादों की मांग बढ़ रही है और मशरूम की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। शहरों के होटल, रेस्टोरेंट और हेल्थ ब्रांड्स अब ऑर्गेनिक और पहाड़ी मशरूम की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे में उत्तराखंड का प्राकृतिक वातावरण, साफ पानी और जैविक संसाधन इसे मशरूम के लिए आदर्श बनाते हैं।

मनोज अब केवल एक किसान नहीं, बल्कि ट्रेनर और रोल मॉडल बन चुके हैं। उन्होंने एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था के साथ मिलकर मशरूम उत्पादन के लिए युवाओं और महिलाओं को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है। उनके गांव में अब लगभग हर घर में कोई न कोई मशरूम उत्पादन से जुड़ा है।

यह बदलाव इस बात का संकेत है कि सही मार्गदर्शन, सरकारी सहयोग और आत्मविश्वास के साथ कोई भी गांव आत्मनिर्भर बन सकता है। मनोज की सफलता इस बात को प्रमाणित करती है कि यदि अवसर मिले, तो पहाड़ का युवा केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि उत्पादक भी बन सकता है।

Conclusion

मनोज बिष्ट की कहानी केवल मशरूम की खेती की नहीं, बल्कि आशा, नवाचार और आत्मनिर्भरता की भी है। यह कहानी हमें सिखाती है कि जब संसाधन सीमित हों, तब भी विचार और समर्पण की कोई सीमा नहीं होती। उत्तराखंड के युवाओं को चाहिए कि वे इस प्रेरणास्पद यात्रा से सीख लेकर अपने गांवों में नई संभावनाओं की खोज करें। मशरूम की खेती केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि पहाड़ की रीढ़ को फिर से मज़बूत करने की एक नई शुरुआत है।

नरेन्द्र सिंह बिष्ट
नरेन्द्र सिंह बिष्ट

रिपोर्टर, हल्द्वानी, नैनीताल (उत्तराखंड)

नरेन्द्र सिंह बिष्ट उत्तराखंड के सामाजिक, पर्यावरणीय और ग्रामीण विकास से जुड़े विषयों पर लेखन और रिपोर्टिंग करते हैं।

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