जहां एक ओर उत्तराखंड के अधिकांश पर्वतीय इलाकों में लोग कृषि कार्य को छोड़कर नए व्यवसायों की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं जनपद बागेश्वर के कपकोट विकासखंड के दूरस्थ गांवों में आज भी खेती जीवन का अभिन्न अंग बनी हुई है। यहाँ के गांवों में हरे-भरे खेत और खेतों में कार्यरत ग्रामीण एक मनमोहक दृश्य प्रस्तुत करते हैं। आपदा संभावित इस संवेदनशील क्षेत्र में भी ग्रामीणों ने धैर्य और संकल्प से यह साबित किया है कि यदि इच्छाशक्ति प्रबल हो तो हर कार्य को सफलता पूर्वक अंजाम दिया जा सकता है।
ग्राम कर्मी व युवा किसान मनोज गाड़िया बताते हैं कि आधुनिक तकनीक से कृषि उत्पादन भले ही जल्दी हो जाता हो, पर रसायनों के अत्यधिक उपयोग से उत्पादों की गुणवत्ता प्रभावित होती है और स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत, पारंपरिक/जैविक खेती न केवल उत्पादों की गुणवत्ता को सुरक्षित रखती है बल्कि भूमि की उर्वरकता और पर्यावरण संतुलन को भी बनाए रखती है।
ग्लेशियरों के निकट बसे इन गांवों की एक और खासियत यह है कि यहाँ पर्यटन की संभावनाएं भी मौजूद हैं। फिर भी ग्रामीणों ने अपनी परंपराओं और कृषि कार्यों को प्रमुखता दी है। समुदाय ने होमस्टे और पारंपरिक खेती के माध्यम से आय सृजन का एक बेहतरीन मॉडल प्रस्तुत किया है। यहाँ के महिला और पुरुष दोनों समान रूप से खेती और अन्य कार्यों में संलग्न हैं। गाँवों में 90% से अधिक युवा आज भी पुश्तैनी खेती से जुड़े हुए हैं।
ग्राम गोगीना की बुजुर्ग महिला जीवंती कोरंगा कहती हैं कि उनके गाँवों में शायद ही कोई मकान खाली पड़ा हो। यहाँ पलायन की समस्या लगभग नगण्य है। ग्रामीणों ने आपसी सहयोग और सामूहिक प्रयास से कृषि को जीवित रखा है। यहाँ के उत्पाद जैसे- सब्जियाँ, मसाले, कीवी फल, धान, गेहूँ, मडुवा आदि देशभर में अपनी गुणवत्ता के लिए पहचान बना रहे हैं। आज भी खेतों में हल बैल से जुताई और गोबर खाद के उपयोग की परंपरा बरकरार है।
यह क्षेत्र स्पष्ट उदाहरण है कि अगर सही सोच और प्रयास हो, तो पारंपरिक व जैविक खेती न केवल आजीविका का मजबूत साधन बन सकती है बल्कि गाँवों को आत्मनिर्भर और खुशहाल भी बना सकती है।
रिपोर्टर, हल्द्वानी, नैनीताल (उत्तराखंड)
नरेन्द्र सिंह बिष्ट उत्तराखंड के सामाजिक, पर्यावरणीय और ग्रामीण विकास से जुड़े विषयों पर लेखन और रिपोर्टिंग करते हैं।